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स्वामी रामतीर्थ मिशन की स्थापना

स्थापना की पृष्ठभूमि

स्वामी रामतीर्थ ने 17 अक्टूबर, 1906 को अपने पार्थिव शरीर को मां गंगा (भिलंगना) की पवित्र धारा में समर्पित कर दिया। संन्यास लेते समय उन्होंने मां गंगा को कहा था, ‘लोगों के फूल (अस्थियां) मां तुम्हारी पवित्र लहरों में डाले जाते हैं, लेकिन तुम्हारा यह पुत्र अपने जीवनकाल में ही, अर्थात् जीवित रहते हुए ही अपने शरीर को तुम्हारी गोद में समर्पित कर देगा।’ और उन्होंने वैसा कर भी दिया। उस समय स्वामी रामतीर्थ की आयु मात्र 33 वर्ष की थी।

स्वामी रामतीर्थ ने ऋषियों द्वारा उपनिषदों में प्रतिपादित ज्ञान को आत्मसात् कर लिया था। इसलिए ‘सब उनके और वो सबके थे।’ लोगों ने जब उनसे किसी संस्था बनाने को कहा, तो उनका उत्तर था, ‘राम सभी संस्थाओं के माध्यम से, प्रत्येक व्यक्ति के रूप में कार्य कर रहा है और भविष्य में भी करेगा।’इसीलिए जब विदेश से आते हुए उनके चाहने वालों ने उन अखबारों और पत्रिकाओं की कटिंग्स काटकर उन्हें दीं, जिनमें उन्हें देवदूत और जीवित ईसा मसीह कहकर सराहा गया था, तो उन्होंने सब समुद्र के जल में प्रवाहित कर दिया कि ‘राम को इसकी अपेक्षा नहीं है।’इस प्रकार राम अद्वैत ज्ञान का ही मानो मूर्तिमान रूप हो गए थे-सभी से निरपेक्ष। यह अध्यात्म की सबसे ऊंची स्थिति है।

लेकिन कुछ वर्षों बाद ही स्वामी रामतीर्थ के प्रति अनन्य निष्ठा रखने वाले अनुयायियों और भक्तों ने उनके द्वारा प्रतिपादित वेदांत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए, ताकि इस जीवन में ही प्रत्येक ‘आनंद’का अनुभव कर सके, विभिन्न प्रयास शुरू कर दिए। ‘रामतीर्थ मिशन’ के नाम से एक अनौपचारिक संस्था (सभा) की शुरुआत स्वामी जी के कुछ भक्तों ने गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) स्थित उनके जन्म ग्राम मुरारीवाला में की। इसका उद्देश्य स्वामी जी की वेदांत संबंधी उस विचारधारा को लोगों के बीच पहुंचाना था, जिसमें कोई अपना-पराया नहीं है, जो आधार है विश्व के सभी संप्रदायों और विचारधाराओं का। जिसके आधार पर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के आदर्श को व्यवहार का बाना पहनाया जा सकता है। यह घटना 1937-38 के आसपास की है। इसकी सूचना जब स्वामी राम के परम शिष्य स्वामी गोविंदानन्द जी महाराज को मिली, तो उन्होंने वहां 1939 ई- में ‘वेदांत सम्मेलन’ का शुभारंभ कर दिया—इसे ‘सर्वधर्म सम्मेलन’ भी कहा जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक धर्म, संप्रदाय और विचारधारा को मानने वाला विद्वान इसमें अपने विचारों को रख सकता था। धीरे-धीरे देश-विदेश के रामभक्तों को एक सूत्र में पिरोने का यह ‘वेदांत सम्मेलन’ एक सशक्त माध्यम बन गया।

स्वामी गोविंदानंद जी महाराज ने अपने सद्गुरु स्वामी रामतीर्थ जी महाराज को घर-घर तक पहुंचाने के उद्देश्य से ‘स्वामी रामतीर्थ मिशन’ की स्थापना और वेदांत सम्मेलन के आयोजनों का जिम्मा अपने शिष्य स्वामी हरिॐ जी महाराज को दे दिया। स्वामी हरिॐ जी ने अपने गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते हुए देश के विभिन्न नगरों में वेदांत के व्यावहारिक रूप का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया।

लेकिन तभी देश में एक अनहोनी घटना घटी। इसने देश को हिंसा, घृणा और बदले की भावना के गर्त में बुरी तरह डुबो दिया। भारत का विभाजन हो गया। पाकिस्तान बन गया। एकाएक आए इस भयंकर तूफान ने रामभक्तों को बिखेर दिया। धनवानों को निर्धन बना दिया। जीने के लाले पड़ गए। ऐसे में संतों-महापुरुषों की भूमिका पूरी तरह से बदल गई। इनके सामने चुनौती थी, जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सुविधाओं को जुटाने में अपने भक्तों की सहायता करना तथा उन्हें यह ढाढ़स देना कि धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। यह उनके आध्यात्मिक प्रशिक्षण की मानो परीक्षा थी।

इस तरह स्वामी गोविंदानंद जी महाराज और उनके शिष्य स्वामी हरिॐ जी महाराज तथा उनके भक्तों द्वारा चलाया गया महान् कार्य बीच में रुक गया। अब सब नए सिरे से करना था। इसी निमित्त स्वामी हरिॐ जी ने देवभूमि, उत्तराखंड में स्वामी रामतीर्थ मिशन की 1948 में स्थापना की मसूरी रोड पर देहरादून से लगभग 13 किलोमीटर दूर एकांत में। यहीं उन्होंने ‘मुरारी वाला’ में होने वाले ‘वेदांत सम्मेलन’ की शुरुआत भी की। विदित हो कि ‘स्वामी रामतीर्थ मिशन’ के लिए खरीदे गए इस भूखंड में देश के विभिन्न नगरों में रहने वाले रामप्रेमियों ने अपनी भावांजलि समर्पित की थी। स्वामी हरिॐ जी महाराज इसमें प्रत्येक रामप्रेमियों की समिधा डालना चाहते थे और उन्होंने ऐसा किया भी। इस प्रकार यह एक महायज्ञ की शुरुआत थी। महापुरुषों का संकल्प साकार होने के लिए मानो अपनी भूमि तैयार कर रहा था। और जल्द ही अमृतसर, इलाहाबाद, शिवपुरी (म.प्र.), सोलन (हि. प्र.), दिल्ली, कलकत्ता आदि नगरों में स्वामी हरिॐ जी ने स्वामी रामतीर्थ मिशन की बीजरूप में सुस्थापना कर दी।