शहंशाह स्वामी रामतीर्थ का परिवार

‘जात न पूछो साध की’ — अकसर यह कहावत कही जाती है, जब किसी महान पुरुष के जीवन को जानने-समझने की बात की जाए। यह बात सही है कि अतीत का क्या करना, लेकिन यह भी तो सच है कि जीवन की यात्र का समूचा विवरण अतीत को खंगालने से ही मिलता है। खामियों को स्वीकारा क्यों न जाए, उनका भी तो कोई कारण होता है। साधु समाज में एक और बात प्रचलित है कि किसी संत का जन्मदिन नहीं मनाना चाहिए, क्योंकि जन्म लेना कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं है, वह तो फलासक्ति का परिणाम है। हां, मृत्यु पर हर्ष मनाना चाहिए, क्योंकि उससे आवागमन का चक्र सदा-सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है—इसे अमरता की कसौटी बनाया जा सकता है।

अध्यात्म जगत् में परिवार को मुक्ति की साधना में रुकावट माना जाता है। इसीलिए महापुरुषों के बारे में लिखते समय अकसर उसके परिवार की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी जाती है। विशेषकर तब तो परिवार जनों का जिक्र बिलकुल भी नहीं किया जाता है, जब वह भौतिक संसार में न रहा हो अर्थात् जब उन्होंने अपने पार्थिव शरीर का परित्याग कर दिया हो। लेकिन हम यहां, जितना उपलब्ध हो सका है, उतना गोस्वामी तीरथराम के परिवार की भी जानकारी दे रहे हैं, ताकि इस बात का अंदाजा लगे कि उनके जाने के बाद वह कौन-सी अज्ञात प्रेरणा थी, जिसने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया। शहंशाह स्वामी रामतीर्थ ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि एक बार यदि कोई सत्य के मार्ग पर चलने का संकल्प कर ले, तो समूची प्रकृति उसका सहयोग करती है।

गोस्वामी तीरथराम के परिवार में सदस्य थे—गोसाईं हीरानंद (पिता), गोसाईं गुरुदास मल (ताऊ जी), गोसाईं भगवान दास (चाचा जी), गोसाईं मोहनलाल (सौतेले भाई), वृद्धा चाची (जिसने उन्हें पाला था) तथा गोसाईं बूटामल (चचेरे भाई)।

जब तीर्थराम बी.ए. में पढ़ रहे थे, तब (1892 में) उनके बड़े पुत्र मदन मोहन का जन्म हुआ था। सन् 1895 में, जब उन्होंने एम.ए. की परीक्षा दी, तब सन् 1895 में उनके घर एक पुत्री का जन्म हुआ, जिसका नाम उन्होंने रखा—सुभद्रा। छोटे बेटे ब्रह्मानंद का जन्म हुआ, सन् 1898 में, जब वे कॉलेज में प्रोफेसर थे।

सन् 1900 में अपने पति के संन्यास लेने के बाद शिवादेवी भी लाहौर से वापस अपने ससुराल मुरारीवाला चली आईं। परिवार के लोग और गोस्वामी तीर्थराम से स्नेह रखने वाले लोग उनकी मानसिक दशा को भलीभांति समझ रहे थे—एक पत्नी और मां के लिए यह अत्यंत दुख की घड़ी थी। उन्हें अपने हृदय में पीड़ा को छिपाकर अपनी संतानों का लालन-पालन करना था और करना था उनके भविष्य का निर्माण। कहते हैं न कि ‘जिस तन लागे, तो तन जाने।’ लेकिन ऐसी स्थिति में परिवार के लोगों ने उनका काफी साथ दिया। अब उनके श्वसुर गोसाईं हीरानंद जी का स्वभाव भी बदल गया था।

उस समय मदनमोहन तीसरी कक्षा में था—जब (1900 में) उनके पिता ने संन्यास लिया था। मुरारीवाला के प्राइमरी स्कूल में उसका दाखिला करा दिया गया था। 1902 में उसने प्राइमरी की परीक्षा पास की। उसके बाद उसका दाखिला गुजरांवाला हाई स्कूल में करवा दिया गया। 1904 में छोटे भाई ब्रह्मानंद ने मुरारीवाला के प्राइमरी स्कूल में पढ़ना शुरू कर दिया। इसी के बाद हरिद्वार वाली वह घटना हुई थी, जिसका जिक्र पहले किया गया है।



शहंशाह स्वामी रामतीर्थ का कथन कितना व्यावहारिक था, इसकी झलक उन्हीं के जीवन में देखने को मिलती है। ये घटनाएं इस बात की भी पुष्टि करती हैं कि कोई कुछ नहीं करता, सब सुव्यवस्थित है। उसी के अनुसार संयोग बनते जाते हैं।

शहंशाह स्वामी रामतीर्थ जब पढ़ते थे, तो उनके एक मित्र थे, मंडी के राजपरिवार के एक सदस्य—भवानी सेन। वो अपने मित्र गोस्वामी के विचारों से काफी प्रभावित थे। गोस्वामी तीरथ राम प्रकृति की गोद में निवास करने कई बार उनके साथ मंडी जाया करते थे। उन्हें जब अपने मित्र के संन्यास लेने की बात का पता चला, तो उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे उनके पुत्रों का ध्यान रखेंगे। सन् 1903 में जब मंडी स्टेट का उन्हें राजा घोषित किया गया, तब भी वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे।

शहंशाह स्वामी रामतीर्थ के ब्रह्मलीन होने के बाद उनकी पत्नी भी 1907 में अपने दोनों बेटों को सदा-सदा के लिए छोड़ गईं। असल में, बदलते घटनाचक्र ने उन्हें पूरी तरह तोड़ दिया था। जब 1907 में मां का साया भी उठ गया, तब मदनमोहन 10वीं कक्षा में पढ़ रहा था और ब्रह्मानंद चौथी में।

मदन मोहन ने 1908 में दसवीं की परीक्षा पास कर ली। वह स्कूल में प्रथम आया था। यह खबर जब मदनमोहन ने राजा भवानी सेन को दी, तो वो बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मदन मोहन को इंजीनियरिंग करने के लिए इंग्लैंड भेज दिया। चार वर्ष के बाद वह इंजीनियर बन गए। अब वो चाहते थे कि उनका छोटा भाई भी उनके साथ रहे। जब वो इंजीनियरिंग के आखिरी वर्ष में थे, तब उनकी मुलाकात पटियाला के महाराजा सरदार भूपिन्दर से हुई थी। उन्होंने मदन मोहन को कहा था कि इंजीनियर बनने के बाद वो भारत में आकर उनसे मिलें। नौकरी के लिए चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। उसका इंतजाम समझो हो गया है।

मदन मोहन इंजीनियर की डिग्री लेने के बाद अपने गांव मुरारीवाला पहुंचे। वहां उन्हें पता चला कि उनके दादा जी भी इस दुनिया में नहीं रहे थे। मंडी के महाराज भवानी सेन का स्वर्गवास पहले ही हो चुका था—9 फरवरी 1912 में। ब्रह्मानंद की देखरेख उनके ताऊ गोसाईं गुरुदास मल जी कर रहे थे। उनसे आज्ञा लेकर मदनमोहन अपने छोटे भाई ब्रह्मानंद के साथ महाराज पटियाला के महल में पहुंच गए। महाराजा ने उन्हें माइन्स इंजीनियर के पद पर नारनोल में नियुक्ति के आदेश दे दिए। अब मदनमोहन अपने पैरों पर खड़े हो गए थे। 1914 में उनका विवाह हो गया।

ब्रह्मानंद ने 1913 में हाई स्कूल, 1917 में बी.ए. में सफलता प्राप्त करने के बाद एल.एल-.बी. में दाखिला ले लिया और 1920 में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जयपुर में नौकरी करने लगे। यहीं उनका विवाह भी हो गया।

इधर चार बच्चों के पिता मदनमोहन की धर्मपत्नी का बीमारी के बाद देहांत हो गया। बच्चे अभी छोटे थे, इसलिए उनकी देखभाल के लिए गुजरांवाला की इकबाल देवी के साथ मदनजी ने दूसरा विवाह कर लिया। इनसे चार पुत्र और एक बेटी का जन्म हुआ। सन् 1942 में जब मदनमोहन का स्वर्गवास हो गया, इस समय इनके पुत्र भारतीय सेना में उच्चाधिकारी के रूप में कार्यरत थे। उसके बाद उनके तीन और पुत्र भी सेना में ऊंचे पदों पर नियुक्त हुए। 24 जून 1980 को श्रीमति इकबाल देवी का देहांत हो गया। मदन मोहन के पुत्र श्री नरेन्द्र गोस्वामी और देवेन्द्र मोहन गोस्वामी भारतीय सेना से कर्नल पद से सेवानिवृत्त होकर सोलन (हि.प्र.) के पास कुमार हट्टी में रहने लगे। वहां सबके बीच में वे कर्नल गोस्वामी के नाम से प्रसिद्ध थे।

ब्रह्मानंद की एक मात्र संतान थी उनकी बेटी, जिसकी शादी उन्होंने जयपुर में ही कर दी थी। जब 6 फरवरी, 1976 को जयपुर में ब्रह्मानंद का स्वर्गवास हुआ, उस समय उनकी बेटी ही उनके पास थी।

इस पूरे कथानक को देने का उद्देश्य केवल इतना है कि लोगों द्वारा यह कहना कि प्रोफेसर तीरथराम ने संन्यास ग्रहण करके अपने कर्तव्य की उपेक्षा की, उपयुक्त नहीं है, आध्यात्मिक नियमों को न समझना मात्र है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि सत्य के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाला भले ही स्वयं उस फल का स्वाद न ले सके, लेकिन आनेवाली पीढि़यां तो उससे तृप्ति का अनुभव करती ही हैं। फिर कोई भी सनाथ ईश्वरीय सत्ता के साथ जुड़ने से होता है—सांसारिक संबंधी किसी को भला क्या दे सकते हैं, उनकी तो अपनी झोली हमेशा खाली रहती है। एक अनाथ दूसरे को भला क्या सनाथ करेगा।