Aim & Objectives
मिशन का उद्देश्य: उसे प्राप्त करने के उपाय
स्वामी रामतीर्थ मिशन, एक अराजनीतिक संस्था है। इसका उद्देश्य है मानवता का संपूर्ण विकास, जिसमें प्रकृति के मूलरूप के साथ अर्थात् मानवेतर प्राणियों के साथ पूर्णरूप से संतुलन पर भी बल दिया गया है। इस दृष्टि से यह ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ की व्यावहारिकता का संदेश है—अर्थात् यह संपूर्ण चराचर सृष्टि ब्रह्म (परमात्मा और परमचेतना) की ही अभिव्यक्ति है। इस प्रकार यह किसी भी प्रकार से संभव नहीं है कि समष्टि अर्थात् समस्त सृष्टि के विकास के बिना मानव अपना आध्यात्मिक विकास कर सके—सर्वे भवंतु सुखिनः—की प्रार्थना का यही भाव है और इसी ‘अद्वैत’ सिद्धांत का व्यावहारिक रूप में प्रचार-प्रसार करना ‘स्वामी रामतीर्थ मिशन’ का उद्देश्य है।
मिशन उपरोक्त विचार और चिंतन को अपना केंद्रीय सिद्धांत मानता हुआ सामाजिक-सांस्कृतिक, एकरसता-समरसता तथा भाईचारे पर बल देता है। यही भारतीय मनीषियों का सर्वोच्च चिंतन है, जिसकी जानकारी आर्यों के पवित्रतम तथा प्राचीनतम ग्रंथ वेद के शिरोभाग अर्थात् उपनिषदों का स्वाध्याय करने से मिलती है। वैदिक ऋषियों का मानना है, जब तक द्वैत में ही
अद्वैत के सूत्र की पहचान नहीं होती, तब तक आत्मशांति, परस्पर सहयोग, बंधुत्व जैसे आदर्श शब्दों का व्यवहार से स्पर्श नहीं होता-तब तक सब वाणी विलास मात्र है, तब तक ‘धर्म’ को मनुष्य समझ नहीं पाएगा।
लक्ष्य प्राप्ति के उपाय
(क) शिक्षा —
इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए मिशन शिक्षा को प्रमुख साधन (ज्ववस) मानता है, इसीलिए उसका जोर जनजागृति पर ज्यादा है। सामान्य शिक्षा के लिए मिशन द्वारा स्थापित विद्यालयों में मानव मूल्यों पर विशेष जोर दिया जाता है, अर्थात् प्रयास रहता है कि विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास हो ताकि वो आदर्श नागरिक बनकर देश को ‘विश्व’ में ‘गौरव’ दिलवा सके।
अपने विद्यालयों के अलावा अपने सिद्धांतों को युवाओं तक पहुंचाने के लिए समय-समय पर अन्य विद्यालयों में जाकर नारी समानता, जातिप्रथा, जनसंख्या, धार्मिक सहिष्णुता, संवेगों को मैनेज करना, समाज के कमजोर तबके के प्रति कर्तव्य, बाहरी और आंतरिक शुचिता एवं पवित्रता, पर्यावरण का संतुलन, राष्ट्र भक्ति तथा विश्व भातृत्व में उचित संतुलन जैसे विषयों पर परिचर्चाओं का आयोजन भी मिशन द्वारा किया जाता है। इस तरह के आयोजनों को करते समय प्रयास होता है कि मैनेजमेंट, अध्यापकों और अभिभावकों से भी सीधे संवाद हो, ताकि उपरोक्त बातों की चर्चा के साथ ही शिक्षा से संबंधित समस्याओं का भी व्यावहारिक समाधान प्राप्त किया जा सके तथा इनके संबंधों में सामंजस्य स्थापित हो सके।
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि स्वामी रामतीर्थ ने पारंपरिक और आधुनिक शिक्षा के समुचित संतुलन पर बल दिया है। उनका मानना था कि ‘जो भी जहां श्रेष्ठ है, उसे अपने अनुसार स्वीकार करना ही चाहिए—जो जातियां, समाज या व्यक्ति महान हुए हैं, उन्होंने इसी ‘मधु संचय’ की प्रवृत्ति को अपने जीवन में स्थान दिया है। जो निरर्थक है, उसे लादकर चलना बोझ ढोकर अपनी गति को कम करना ही है।’
मिशन की मान्यता है कि शिक्षा का अंतिम लक्ष्य आंतरिक, सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति है, जिसे उपनिषद के ऋषि ‘विद्या’ कहते हैं। विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान।
आज शिक्षा की बहुत बड़ी समस्या है। सीखते रहने की प्रवृत्ति ‘जिज्ञासा’ का बने रहना तथा सीखे गए की अभिव्यक्ति में समुचित संतुलन का अभाव। इसके लिए समय-समय पर ग्रुप डिस्कशन्स, वाद-विवाद और निबंध प्रतियोगिताओं का आयोजन करवाया जाता है। साथ ही धर्मग्रंथों के ऐसे भागों को कंठस्थ कर उन्हें समझाने तथा व्यवहार में लाने का प्रशिक्षण विभिन्न शिविरों को आयोजित कर दिया जाता है, जिनमें नीति, मर्यादा, आदर्श और व्यावहारिकता का समुचित संतुलन हो।
(ख)
‘मिशन’ अपनी सांस्कृतिक विरासत को संभालकर रखने, उसे संवारने और जन-जन तक पहुंचाने के प्रति कृतसंकल्प है। लेकिन वह उन मान्यताओं, परंपराओं, आस्थाओं को बिना किसी पक्षपात के छोड़ देने की भी सलाह देता है, जो कभी उपयोगी रहे होंगे, लेकिन अब जो अपना अर्थ खो बैठे हैं—सजीव वस्तु भी जब निर्जीव हो जाती है, तो उसकी दशा-दिशा बदल जाती है। उसमें होने वाले परिवर्तन की प्रक्रिया को रोकना समय की बर्बादी तो होता ही है, उससे उठने वाली दुर्गंध समूचे वातावरण को दूषित कर देती है। सामाजिक कुरीतियों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। मिशन इस कार्य के लिए देश के विभिन्न नगरों से अपने-अपने क्षेत्र के विद्वानों, संतों और महापुरुषों को बुलाकर सम्मेलनों का आयोजन करता है, जिसमें आए हुए भक्त जीवन के विभिन्न पक्षों की समग्ररूप से विवेचना करते हैं। इन सम्मेलन के मंचों पर आज भी ‘सत्य के मार्गों’ के बारे में कोई दुराग्रह देखने को नहीं मिलता। बिना किसी की आलोचना किए हुए, प्रत्येक विचारधारा का सम्मान करते हुए सब अपने व्यक्तिगत अनुभवों की चर्चा करते हैं।
इसके अलावा वर्ष में आने वाले विशेष धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों को करते समय या विशेष ग्रंथों पर होने वाले कार्यक्रमों में भी प्रयास यही होता है कि पर्वों और कथाओं के महत्व को उसके पौराणिक महत्व के साथ ही व्यावहारिक उपयोगिता के साथ जोड़कर देखा जाए। क्योंकि बिना सत्य को जाने भटकाव की ही संभावना रहती है—व्यक्ति हो या कि समाज अपने मार्ग से भटक जाता है। इससे लाभ के स्थान पर हानि ही होती है।
मिशन इन पर्वों, उत्सवों और परंपराओं के संदर्भों में क्या और कैसे के साथ ही ‘क्यों’ इस प्रश्न का उत्तर जानने का भी प्रयास करता है, क्योंकि इसकी जानकारी के बिना पर्व या उत्सव को मनाकर हम मात्र एक परंपरा का ही निर्वाह करते हैं, इससे जीवन में सकारात्मक रूप से ऐसा कुछ भी जुड़ नहीं पाता, जिससे व्यक्ति या समाज को सही दिशा मिले, सच्चे अर्थों में उसका विकास हो, लोग समृद्धि और आंतरिक संपन्नता तथा प्रसन्नता का अनुभव कर सकें।
धार्मिक और सांस्कृतिक आदर्शों की स्थापना के साथ ही ‘मिशन’ राष्ट्र-प्रेम, देशभक्ति जैसे भावों को पुष्ट करने पर भी बल देता है। इसके लिए वह समय-समय पर आने वाले राष्ट्रीय पर्वों का आयोजन करता है। वह उन शहीदों का स्मरण भी करता है, जिन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर करके देश को लंबी गुलामी से मुक्त कराया तथा जो आज भी पूर्ण समर्पण के साथ बिना किसी बात की परवाह किए राष्ट्रधर्म का निर्वाह कर रहे हैं। इस प्रकार ‘ॐ’ से अंकित भगवा ध्वज जहां रामप्रेमियों के आदर्श-आदर का प्रतीक है, वहीं तिरंगे का हम उसी प्रकार हृदय से सम्मान करते हैं। जितने पूज्य हमारे लिए देश के संत, महापुरुष, तपस्वी और ऋषि हैं, उससे कम देश के लिए अपना समर्पण करने वाले राष्ट्रभक्त नहीं हैं।
(ग)
मिशन का संकल्प है मनुष्य को इस योग्य बनाना कि वह आर्थिक रूप से सशक्त बन सके। इस कार्य के लिए उसका आदर्श वाक्य है—किसी को खाना देने से बेहतर है उसे इस योग्य बनाना कि वह स्वयं रोटी कमा सके, अपना और अपने परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सके। इसके लिए समय-समय पर दिए जाने वाले विशेष प्रशिक्षणों के लिए विद्यार्थियों और युवाओं को प्रेरित किया जाता है। विशेष प्रकल्प के रूप में महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई जैसे प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। जो कार्य ‘मिशन’ स्वयं नहीं कर पाता, उसके लिए वह बिना किसी पक्षपात एवं पूर्वाग्रह के उन संस्थाओं का भी सहयोग करता है, जो आंशिक या पूर्णरूप से इस तरह के कार्यों को कर रही हैं। इसके अलावा प्रशिक्षण प्राप्त करने वालों से बातचीत कर उनके व्यक्तिगत समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने का भी प्रयास किया जाता है, आवश्यकता पड़ने पर अनुभवी एवं प्रशिक्षित काउन्सलर्स की भी सहायता ली जाती है। इस समस्त आयोजन का लक्ष्य है लोगों की यह स्वीकृति कि ‘स्वयं से स्वयं का उद्धार करना होगा।’
(घ)
लोगों में जन-जागरण के लिए मिशन ने वाचनालयों और पुस्तकालयों की भी अपना अभिन्न अंग बनाया है। समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं से जहां पाठकों को देश-विदेश में होने वाली घटनाओं का ज्ञान होता है, वहीं पुस्तकों के स्वाध्याय द्वारा वे अन्य लेखकों के अनुभवों से भी लाभान्वित होते हैं। उन्हें एक ही विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने का सुअवसर प्राप्त होता है। मिशन के संस्थापक स्वामी हरिॐ जी महाराज का कहना था—‘सत्य को जानने के लिए जरूरी है कि तथ्यों का प्रत्येक दृष्टि से निरीक्षण-परीक्षण किया जाए।’
(घ)
इसी दृष्टि से ‘मिशन’ ने स्वामी राम के साहित्य के, जो मूलरूप से स्वामी रामतीर्थ प्रतिष्ठान-लखनऊ से प्रकाशित होता है, कुछ महत्त्वपूर्ण प्रवचनों को नए कलेवर में छापा है। इसके अलावा भारतीय दर्शन और उपासना के दुर्लभ ग्रंथों को मूलरूप में सर्वसाधारण के लिए प्रकाशित भी किया है। इसका उद्देश्य है—लोगों को सुनी-सुनाई जानकारी से अलग हटकर मूलग्रंथों से जोड़ना, क्योंकि इसके बाद ही पाठक स्वयं किसी ठोस निश्चय पर पहुंच सकता है। देखने में आया है कि कई प्रश्नों का समाधान मूलग्रंथों को पढ़ने से अपने आप हो जाता है।
प्रकाशन की इस शृंखला में मिशन ने स्वामी रामतीर्थ और नववेदांत पर किए गए शोधग्रंथों के प्रकाशन का संकल्प भी किया है। इसी संदर्भ में प्रयास है कि उन ग्रंथों को भी रामप्रेमियों को अपने मूलरूप में उपलब्ध कराया जाए, जिनका जिक्र स्वामी रामतीर्थ ने अपने भाषणों में किया है। हिंदी पाठकों के लिए उनके अनुवाद और रूपांतर का प्रयास भी भावी याेजनाओं में समाहित है।
(च)
वेदांत के व्यावहारिक पक्ष पर बल देने के लिए मिशन से ‘राम संदेश’ नामक एक मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन होता है। इसके द्वारा जहां मिशन से जुड़े रामप्रेमियों और रामभक्तों को स्वामी रामतीर्थ की पावन परंपरा को पोषित करने वाले महापुरुषों के सुविचारों को-लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से पढ़ने-समझने का अवसर मिलता है, वहीं समय-समय पर होने वाले कार्यक्रमों की पूर्व सूचना और उनके आयोजन की सचित्र-सविस्तार जानकारी भी मिलती है। इस पत्रिका की भूमिका मिशन और उनके अनुयायियों के बीच एक सेतु-सी है।
(छ)
मन और आत्मा के विकास के साथ ही मिशन ने शरीर को निरोग और स्वस्थ रखने के लिए जहां निःशुल्क औषधालयों की स्थापना की है, वहीं वह योग शिविरों का भी संचालन करता है—कहीं नित्य, तो कहीं समय-समय पर! औषधालयों से—जिनमें वैकल्पिक चिकित्सा पर बल दिया जाता है, जहां रोगों से तत्काल छुटकारा मिलता है, वहीं योग प्रशिक्षण द्वारा ‘स्वास्थ्य’ के प्रति यह दृष्टिकोण विकसित होता है कि तन-मन और आत्मा का सही संतुलन ही सच्चे अर्थों में स्वास्थ्य है तथा इसकी उपलब्धि तभी संभव है, जब योग दैनिकचर्या का अभिन्न अंग बन जाए। लंबी आयु, पुष्ट मांसपेशियों और मजबूत मन के लिए आवश्यक है कि हमारी दिनचर्या संतुलित हो। इसीलिए ‘योग और मानसिक प्रशिक्षण शिविरों’ के समापन पर विशेषरूप से यह संदेश प्रेषित किया जाता है, ‘यहां आकर जो सीखा है, उसका अभ्यास घर-परिवार में जाकर भी करना है।’ क्योंकि अभ्यास ही अगले चरण में प्रवेश की योग्यता प्रदान करता है।
(ज)
गो को वैदिक संस्कृति में माता का स्थान दिया गया है। ‘गावो लोकस्य मातरः’ अर्थात् गो समस्त लोकों में रहने वाले की माता है। इसे ऋषि और कृषि संस्कृति का आधार स्वीकार किया गया है। इसीलिए ‘मिशन’ गो सेवा और गो सरंक्षण पर भी बल देता है। इसे व्यावहारिक रूप देने के लिए इसने आश्रम प्रांगण में गोशाला की स्थापना भी हुई है, ताकि वहां रहने वाले साधकों को इसका लाभ प्राप्त हो सके। पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए आश्रम में लगे वृक्षों में, जिनकी संख्या 200 के आसपास होगी, गोबर की खाद का ही प्रयोग किया जाता है-किसी रासायनिक खाद का नहीं।
(झ)
बाहर से आने वाले रामभक्तों और तीर्थयात्र या भ्रमण करने वाले संतों के लिए यहां निवास की व्यवस्था है—बिना किसी सांप्रदायिक भेदभाव के कोई भी यहां बिना किसी शुल्क के 3 दिनों तक निवास कर सकता है। विभिन्न शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थियों के अस्थायी निवास के लिए भी यहां समुचित व्यवस्था का प्रावधान है, ताकि वे यहां निवास करते हुए अपने विभिन्न प्रोजेक्ट्स को पूर्ण कर सकें। बस एक ही शर्त सब पर लागू होती है कि आश्रम की मर्यादाओं का पालन हो और इस पवित्र स्थान की शांति भंग न हो।
कुल मिलाकर मिशन का उद्देश्य है स्वयं का आध्यात्मिक विकास करते हुए अपनी संस्कृति और देश की गरिमा का संरक्षण तथा संपूर्ण मानवता की सुख-शांति के लिए अथक प्रयास। अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपनाता है, उस त्रिसूत्री कार्यक्रम को, जिसे वैदिक ऋषियों ने ‘प्रस्थानत्रय’ अर्थात् ‘तीन मार्ग’ कहा था। स्वामी रामतीर्थ ने इसे ‘प्रिन्सिपल ऑफ थ्री एच’ कहा है अर्थात हाथ से काम (Hand), हृदय से प्रेम (Heart) और तर्क तथा विवेक का अनूठा समन्वय (Head)। इन तीनों के समुचित संतुलन से ही जीवन में पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ और काम) तथा परमपुरुषार्थ रूप ‘मोक्ष’ अर्थात् पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्त हो सकती है। मिशन इनके प्रति संकल्पबद्ध है।