शहंशाह स्वामी रामतीर्थ—संन्यास से पूर्व स्वामी रामतीर्थ का नाम गोस्वामी तीर्थ राम था। इनका जन्म 22 अक्टूबर, 1873 को तत्कालीन पंजाब प्रांत के जिला गुजरांवाला के ग्राम मुरारीवाला में हुआ था, जो इस समय पाकिस्तान में है। इनके पिता का नाम था पंडित हीरालाल और माता का निहालदेई। पंडित हीरालाल की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके घर का खर्च धार्मिक संस्कारों (कर्मकांड) और खेती से उनके घर का खर्च चलता था। लेकिन तीर्थराम के जन्म के कुछ दिनों बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन किया इनके बड़े भाई गोंसाई गुरुदासमल और उनकी वृद्धा चाची ने। परंतु यहां कुछ लोगों का मानना है कि इस काम में उनकी बुआ श्रीमती धर्मकौर की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

गोस्वामी तीर्थराम का संबंध कुछ लोग ‘रामचरित मानस’ के रचनाकार संत तुलसीदास जी से मानते हैं, जबकि कुछ के विचार से इसी नाम के एक और संत थे, जिनकी प्रसिद्धि उत्तरी-पश्चिमी सीमा पंजाब प्रांत में थी, जिनकी गद्दी ‘चित्रल’ के पास स्थित ‘स्वाट’ में थी। यहां, अपने पूर्वजों की गद्दी पर तीर्थराम अपने पिता के साथ समय-समय पर माथा टेकने जाया करते थे।

बालक तीर्थराम जब 5 वर्ष के हुए, तो इन्हें मुरारीवाला प्राइमरी स्कूल पढ़ने के लिए डाल दिया। यहां उनके शिक्षक को, जो मुस्लिम थे, इस बात का संकेत मिल गया था कि उनके पास पढ़ने वाला साधारण-सा दिखने वाला बालक अतिविशिष्ट व्यक्तित्व का धनी है। यह भविष्य में विशिष्ट व्यक्तित्व का धनी बनेगा।

सभी जानते हैं कि उस समय समाज में बाल-विवाह की प्रथा थी। इसके अनुसार कम आयु में ही बच्चों की शादी कर दी जाती थी। तीर्थराम के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनका विवाह मुरारीवाला से 6-7 कोस की दूरी पर स्थित ‘विरोके’ ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार की बेटी ‘शिवो देवी’ के साथ कर दिया गया।

गांव के स्कूल में शिक्षा पूर्ण हुई तो आगे की शिक्षा के लिए पिता ने तीर्थराम को गुजरांवाला के हाई स्कूल में भेज दिया। यहां उनका संपर्क भगत धन्ना राम से हुआ, जो तीर्थराम के पिता के मित्र थे। धन्ना जी की ख्याति लोगों में एक ऐसे सिद्ध पुरुष के रूप में थी, जिसके द्वारा कही गई बात पूरी हो जाती थी। इसीलिए लोग उन्हें ‘रबजी’ इस नाम से पुकारते थे।

तीर्थराम को भगत जी बाकी लोगों से थोड़ा भिन्न लगे। उनका आचरण संसारी व्यक्तियों का-सा नहीं था। इसलिए उन्होंने भक्त जी को अपना मार्गदर्शक गुरु स्वीकार कर लिया।



मार्च सन् 1888 में तीर्थ राम ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। पूरे प्रांत में उनका स्थान 38वां था। उन्हें छात्रवृत्ति नहीं मिली। उनके पिता नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र अब आगे पढ़े। वह चाहते थे कि नौकरी करके वह उनका साथ दे। परंतु तीर्थराम अभी आगे और पढ़ना चाहते थे।

उन्होंने फॉरमैन क्रिश्चियन कॉलेज, लाहौर में इंटरमीडिएट की परीक्षा के लिए दाखिला ले लिया और इसी कॉलेज से बी.ए. और एम.ए. की परीक्षाएं पास कीं—1890 में इंटरमीडिएट, 1893 में बी.ए. और 1895 में एम.ए.। इंटरमीडिएट में वे पंजाब प्रांत में 25वें, बी.ए. और एम.ए. में प्रांत में प्रथम आए थे। एम.ए. में उनका विषय गणित था।

पिता नहीं चाहते थे कि तीरथराम और पढ़े, अतः उन्होंने किसी प्रकार की सहायता देने से साफ तौर से उन्हें मना कर दिया। ऐसे में धन्ना जी, तीरथराम के मामा जी रघुनाथ मल ने और श्री झंडूमल ने इनकी सहायता की। धन्ना जी को लिखे पत्रों में उन्होंने अपने इस संघर्ष को बयान किया है। कई बार तो उनके पास पोस्टकार्ड खरीदने तक के लिए पैसे नहीं होते थे।

पढ़ाई के दौरान तीर्थराम में दो परिवर्तन विशेष रूप से हुए। उन्होंने योगबशिष्ठ का स्वाध्याय किया, परिणाम स्वरूप संसार को देखने की उनकी दृष्टि पूरी तरह से बदल गई। इसके कुछ दिन बाद ही उनकी बहन तीर्थदेई की आकस्मिक मृत्यु हो गई। अपनी बहन से वह बहुत प्रेम करते थे। इस घटना के बाद संसार की असारता और झूठे सांसारिक संबंधों की कलई मानो उनके सामने खुल गई। पढ़े-लिखे को उन्होंने अपने जीवन में भोग लिया था। भविष्य में होने वाले परिवर्तन का बीज मानो इस रूप में कहीं कहीं उनके गहरे में पड़ गया था। संभवतया इसी वजह से मन में समाज से मिलने वाले मान-सम्मान के प्रति भी उनका कोई आकर्षण भी नहीं रह गया था।

एम.ए. पास करने के बाद तीर्थराम के सामने चुनौती थी—नौकरी मिलना। उन्हें अपने परिवार, पत्नी और दो बच्चों के साथ अपने पिता को खर्च देना था। अमृतसर और सियालकोट में उन्होंने प्रयास किया, लेकिन वहां वेतन बहुत कम था—केवल 50-60 रुपये मासिक। और आखिरी 21 दिसवंबर 1895 को तीर्थराम उसी कॉलेज में गणित के प्रोफेसर बन गए, जहां से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी।

कॅरियर के रूप में यह एक अच्छा सुअवसर था। लगता था ईश्वर ने तीर्थराम के हितैषियों की सुन ली थी। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वह गुपचुप अपना ही ताना-बाना बुन रही थी। यह संयोग ही था कि मिशन कॉलेज, लाहौर में तीरथराम का भक्ति विषय पर भाषण हुआ, जिसने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसी स्थान पर दूसरा भाषण जब हुआ, तो वहां पंडित दीनदयाल और श्री गोपीनाथ जैसे विद्वान श्रोता भी उपस्थित थे। वैदिक परंपरा और भक्ति पर दिए गए इस भाषण को सुनकर लोगों को आश्चर्य हुआ कि एक युवा प्रोफेसर अध्यात्म और धर्म-संस्कृति के बारे में इतना सब कैसे जानता है।

कुछ दिनों तक प्रोफेसर तीरथराम छात्रवास के सुपरिटेंडेंट भी रहे। लेकिन उन्होंने जल्द ही इस पद से त्यागपत्र दे दिया, क्योंकि यह उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं था। इससे उनकी साधना में रुकावट आ रही थी। अब अपने इष्ट का वियोग उनसे बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। और आखिर उन्होंने एक कदम आगे बढ़ा ही दिया। विदित हो कि गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के प्रिसिंपल ने जब प्रो- तीरथराम का नाम प्रांतीय सिविल सर्विस के लिए भेजना चाहा, तो उन्होंने यह कहकर उसे अस्वीकार कर दिया कि ‘जिस फसल को मैंने लोगों के बीच बांटने के लिए इकट्ठा किया है, उसे मैं अपनी सुख-सुविधाओं के लिए कैसे बेच सकता हूं।’

यहां तीरथराम के जीवन की उन महत्त्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र करना बहुत जरूरी है, जिन्होंने उनके जीवन की गति को तेज घुमावदार मोड़ दिया। पहली घटना है स्वामी विवेकानंद का 5 नवंबर, सन् 1897 को लाहौर आगमन। यहां स्वामी जी के ‘हिंदूधर्म’, ‘भक्ति’ तथा ‘वेदांत’ इन तीन विषयों पर भाषण हुए। इन भाषणों ने लाहौर क्या पूरे पंजाब के प्रबुद्ध जिज्ञासुओं के हृदयों में मानो नई चेतना का संचार कर दिया। इस प्रभाव से गोस्वामी तीरथराम भी अछूते नहीं रहे। इन भाषणों का आयोजन गोस्वामी तीरथराम ने ही किया था। वे उस समय लाहौर की सनातन धर्म सभा के महामंत्री थे। प्रचलित है कि गोस्वामी तीरथराम ने स्वामी विवेकानंद के समक्ष ‘भक्ति’ के प्रतिपादन के संदर्भ में असंतुष्टि की बात कही थी, तभी अगले दिन ‘वेदांत’ पर स्वामी जी ने अपना ओजस्वी भाषण दिया था।

यहां यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि स्वामी विवेकानंद के इस अद्वैत- परक व्याख्यान को सुनकर, जिसमें जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प शक्ति और विषयों के त्याग पर बल दिया गया था—गोस्वामी तीरथ राम के वैराग्य को मानो पंख मिल गए थे। अब उनके लिए एक-एक पल बिताना मुश्किल हो रहा था।

दूसरी घटना है द्वारका मठ के तत्कालीन शंकराचार्य श्री स्वामी माधवतीर्थ जी से मिली प्रेरणा। संभवतया, उन्हीं से मिले मार्गदर्शन के फलस्वरूप गोस्वामी तीरथराम ने संन्यास लिया था—अर्थात् स्वयं से स्वयं को दीक्षा। ऐसे अन्य उदाहरण पुराणों में भी मिलते हैं। वैराग्य के परम उत्कर्ष पर होने की स्थिति में इस दीक्षा का विधान शास्त्रों में दिया गया है। लेकिन इसे नियम नहीं, ‘विशेष स्थिति’ कहा जाता है। इस आदेश के बाद ‘गुरु’की खोज का बंधन भी गोस्वामी तीरथराम के समक्ष नहीं रह गया था। जब आत्मा ही गुरु है, तो उसकी तलाश भीतर ही क्यों न की जाए।

अक्टूबर सन् 1897 को वे जीवन के सत्य की खोज में लाहौर से हरिद्वार पहुंच गए। देवभूमि में प्रवेश का यह द्वार जिज्ञासुओं को सदा से अपनी ओर आकर्षित करता आ रहा है। मां गंगा की पावन धारा के किनारे बसी इस तपःस्थली का यह माहात्म्य ही है कि इसने दक्ष प्रजापति को दिव्य यज्ञ करने के लिए अपनी गोद में आमंत्रित किया। विदित हो कि इसके एक ओर जहां मां चंडी का पीठ विराजमान है, वहीं दूसरी ओर मनसादेवी अपने भक्तों की मनोकामना को पूर्ण कर रही हैं। प्रत्येक 12 वर्षों के बाद महाकुंभ का यहां लगना भी तो इसके आध्यात्मिक महत्त्व का बखान करता है।

गोस्वामी तीरथराम का मन बेचैन था। यह बेचैनी ही तो ‘परम’ को साधने का परम साधन है। यह स्थिति ऐसी थी, मानो किसी ने प्राणों को रोक दिया हो, तब जीवन के परम लक्ष्य को साधने का अंतिम क्षण बिलकुल सामने स्पष्ट दिखाई दे रहा था।

वे ऋषिकेश होते हुए ऊपर घने जंगलों और ऊंची पर्वतमालाओं की ओर चल दिए। उनकी इस कठिन यात्र को सहज बना रही थी मां गंगा के द्वारा गाई जा रही मीठी लोरी। ब्रह्मपुरी के घने जंगल की एक गुफा में उन्होंने अपने जीवन की परम अनुभूति का साक्षात्कार किया—यहीं उन्हें आत्मानुभूति हुई, ब्रह्मसाक्षात्कार हुआ। यहां उन्होंने सत्य पर स्वयं को वार दिया। अपने पिता को उन्होंने यहां से एक पत्र लिखा—‘आज दीपावली है। मैं जुए में अपने प्रभु से हार गया हूं। अब मेरा कुछ नहीं है, मेरे पास कुछ नहीं बचा है।’ यह पत्र 25 अक्टूबर, 1897 को लिखा गया था। उन्होंने अपने पत्रों में आत्मसाक्षात्कार को ही सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य बताते हुए उसे ही करने पर जोर देने की बात कही थी। उनके पत्र के इन शब्दों से उनकी आंतरिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है—‘क्या कभी किसी ने मृतक के पास लौटने का संदेश भेजा है? जिसे उससे मिलना होता है, वह स्वयं उससे मिलने पहुंचता है।’

लेकिन इसके बाद गोस्वामी तीरथराम का लाहौर आना-जाना लगा रहा। और आखिर वह घड़ी आ गई, जिसने उनके नाम को ही नहीं, उनके जीवन की दिशा को ही पलट दिया। जुलाई 1900 में उन्होंने लाहौर को सदा-सदा के लिए छोड़ दिया यह कहते हुए—

अलविदा मेरी रियाजी! अलविदा!
अलविदा ऐ प्यारी रावी! अलविदा!
अलविदा ऐ दोस्तो-दुश्मन! अलविदा!
अलविदा ऐ दिल! खुदा ले अलविदा!
अलविदा ऐ राम! सबको अलविदा!


लेकिन अभी भी खुद को ठोक-बजाकर देखना बाकी था। यह जानकर कि कहीं कोई चूक तो नहीं हो रही, 1 जनवरी 1901 को तीरथ राम ने गैरिक वस्त्रों को भिलंगना को साक्षी मानकर पहन लिया। महाकाश में विचरण करने की इच्छावाले पंछी की यह मानो आखिरी छलांग थी—क्योंकि इसके बाद तो आकाश ही उसका आश्रय था। इस समय आर-एस- नारायण स्वामी भी उनके पास थे।

संन्यास लेने के बाद लगभग 11 मास में उत्तराखंड के ऊंचे-ऊंचे शिखरों, तलहटियों और घने जंगलों की अनवरत यात्र स्वामी रामतीर्थ ने की। ‘सुमेरु यात्र’ का वर्णन, जिसका उल्लेख उन्होंने एक सुंदर लेख के रूप में अपने एक पत्र में किया है—विशेषरूप से पठनीय है। इस दौरान स्वामी जी ने 600 मील की यात्र की।

सन् 1901 के अंत में स्वामी जी मैदान में—सर्वप्रथम मथुरा पधारे। यहां स्वामी शिवगणाचार्य ने लघुरूप में सर्वधर्म सम्मेलनों का आयोजन किया था। दोनों बार स्वामी रामतीर्थ ही व्यासपीठ पर सभाध्यक्ष के रूप में विराजमान हुए। लाहौर के ‘फ्री थिंकर’ पत्र ने स्वामी जी के विनम्र और निर्भय स्वभाव की प्रशंसा की थी। लेकिन यहां स्वामी जी को लगा कि उनका प्रयोग अपने स्वार्थ साधने के लिए लोग कर रहे हैं। लोगों में जिज्ञासा का अभाव है—वे आध्यात्मिक होने का दिखावा मात्र करते हैं। इसलिए वे फिर से अपनी प्रिय स्थली देवभूमि टिहरी में आ गए और ‘ॐ’ की दिव्य साधना में डूब गए।

टिहरी के महाराज कीर्तिशाह की प्रकृति तर्क-प्रधान थी। उन्होंने नास्तिक दर्शनों का भी अध्ययन किया हुआ था। उन्होंने स्वामी रामतीर्थ से जब जीवन के विभिन्न प्रश्नों के सहज समाधान सुने और यह भी जाना कि उनकी क्या उपयोगिता है तथा उन्हें कैसे अपने दैनिक जीवन से जोड़ा जा सकता है, तो वे स्वामी जी के अनन्य भक्त बन गए। महाराज ने स्वामीजी को गोलकोठी में रुकने का आग्रह किया, और उन्होंने स्वीकार कर लिया। जब भी महाराज को समय मिलता, वे स्वामी जी के पास आ जाते और घंटों बैठकर अपनी जिज्ञासाओं को शांत करते।

सन् 1902 में समाचार-पत्रों में एक समाचार बिना किसी पुष्टि के प्रकाशित हो गया कि शिकागो में आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन की तरह का एक आयोजन इस बार टोकियो में संपन्न होने जा रहा है। महाराज कीर्तिशाह ने स्वयं इसकी सूचना स्वामी जी को दी थी। महाराज ने स्वामी जी की स्वीकृति के बाद टोकियो जाने की सारी व्यवस्था कर दी। नारायण स्वामी भी उस समय उनके साथ थे। स्वामी जी का मार्ग में पड़ने वाले बंदरगाहों में हिंदू व्यापारियों ने भव्य स्वागत किया।

टोकियो पहुंचने पर उन्होंने इंडो-जापानी क्लब की ओर प्रस्थान किया, जहां उनकी मुलाकात सरदार पूर्ण सिंह से हुई, जो उस समय उपरोक्त संस्था के मंत्री थे और उसी क्लब में रहते थे। वहां जब उन दो युवा संन्यासियों का परिचय सदस्यों से करवाया गया, तो मानो अपनेपन की लहर पूरे वातावरण में बिखर गई। विशेषकर उस एक संन्यासी को देखने और उससे बात करने के बाद तो लोगों को ऐसा महसूस हुआ, मानो अधखिली महकती फूलों की खूबसूरत क्यारियों में बैठी, उड़ती, चलती, फुदकती, रंग-बिरंगी चिडि़या चहक रही हों। जिनके मुखमंडल पर अनोखी चमक थी, उस युवा संन्यासी का नाम था—स्वामी रामतीर्थ, जो अपने परम शिष्य के साथ विदेशियों को अपनी संस्कृति और धर्म को उन्हीं की भाषा में समझाने आया था। पूर्ण सिंह को तो मानो वो सब मिल गया था, जिसकी उन्हें तलाश थी। नारायण स्वामी ने जब पूर्णसिंह से पूछा, ‘आप किस देश के निवासी हैं?’ तो पूर्ण सिंह की आंखों में प्रेम की बूंदें तैर गईं। वो बोले, ‘सारा संसार मेरा घर है!’ यह वाक्य पूरा हो पाता कि बड़े स्वामी ने धीरे से वाक्य को पूरा कर दिया, ‘. . . और भलाई करना मेरा धर्म।’ बस इन्हीं दो वाक्यों ने सरदार पूर्ण सिंह का पूरा परिचय दे दिया था।

औपचारिक रूप से हुई परस्पर वार्ता कब परस्पर आत्मीयता और श्रद्धा का बीजारोपण कर गई, किसी को कुछ पता नहीं चला—पूर्ण सिंह अब पूरन जी हो गए थे। अगले ही दिन पूरनजी पुरानी पुस्तकों की एक दुकान से दो बड़े-बड़े ग्रंथ ले आए, जो 1893 में शिकागो में सर्वधर्म सम्मेलन में हुए भाषणों का संग्रह था। इन ग्रंथों को पूरनजी ने स्वामी जी के टेबुल पर रख दिया। उन्हें देखकर स्वामी जी की प्रतिक्रिया थी—‘यही तो राम चाहता था। देखा, प्रकृति कैसे राम की इच्छाओं को पूरा कर रही है?’

इसके बाद टोकियो में होने वाले सर्वधर्म सम्मेलन के बारे में तरह-तरह से बातचीत हुई, विचार-विमर्श हुआ। लेकिन तभी पता चला कि ऐसे किसी सम्मेलन का आयोजन टोकियो में नहीं हो रहा है, जिसके लिए अपने शिष्य नारायण स्वामी के साथ स्वामी रामतीर्थ जापान आए हैं। दूसरा कोई होता, तो इस समाचार को सुनकर जरूर निराश होता—लेकिन स्वामी राम की मस्ती पर इसका कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। बल्कि उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि ‘यदि टोकियो ऐसा कोई सम्मेलन नहीं कराना चाहता, तो न सही, राम तो अपना सम्मेलन करेगा ही।’

प्रकृति राम का साथ दे रही थी। इसीलिए जो भी उनसे मिलता, वह उनसे प्रभावित हुए बिना न रहता। प्रोफेसर तकात्कुसु को उनमें बौद्धधर्म और वेदांत के एक साथ दर्शन हुए। उनके अनुसार, ‘स्वामी रामतीर्थ में सच्चा कवि और महान दार्शनिक एक साथ निवास करते थे। उनकी हंसी में ऐसी खनक थी, जो किसी के हृदय को भी अपनी ओर अनायास खींच सकती थी।’

एक बार कोई अपने परिवार के साथ स्वामी जी को मिलने आया। उस परिवार का कहना था कि ‘इस दिव्य आनंद का स्वाद भला वह अकेले कैसे ले सकता है।’ स्वामी जी से उसने पूछा, ‘आपने अपने परिवार का परित्याग क्यों कर दिया?’ तो स्वामी जी का जवाब था, ‘क्योंकि मैं एक बेहतर परिवार की खोज में हूं, जिसके सदस्यों के बीच मैं अपने अनुभव को सहजता और ईमानदारी से बांट सकूं, जिन्हें उसकी जरूरत भी हो।’

इसी बीच टोकियो के कॉमर्स कॉलेज में स्वामी रामतीर्थ ने एक महत्त्वपूर्ण प्रवचन दिया—सफलता का रहस्य। अखबारों में इसका विवरण पढ़कर रूस के राजदूत ने उनसे मिलने का प्रयास किया, लेकिन तब तक स्वामी जी सनफ्रांसिस्को जाने के लिए रवाना हो चुके थे।

वहां, सनफ्रांसिस्को में भी स्वामी जी का हार्दिक स्वागत हुआ। सभी उन्हें अपना अतिथि बनाना चाहते थे। बुद्धिजीवी या पढ़े-लिखे लोग ही नहीं, कैलीफोर्निया की पर्वतीय घाटियों में रहने वाले अशिक्षित देहातियों का भी स्वामी जी ने दिल जीत लिया था। हिलर दम्पति के साथ स्वामी जी काफी समय रहे। शास्तास्प्रिंग पर रहते समय वो कठोर परिश्रम करते। कमरे को गर्म करने के लिए वे जंगल से लकडि़यां काट कर लाते।

एक बार शास्ता पर्वत पर चढ़ने की प्रतिस्पर्धा में वे सर्वप्रथम आए। लेकिन इसमें उन्होंने कोई भी पुरस्कार नहीं लिया था। इतना ही नहीं, स्वामी राम ने 30 मील दूरी की मैराथन दौड़ में सम्मिलित होकर भी प्रथम स्थान प्राप्त किया था। यह सब राम ने अपने आनंद के लिए किया था—जीतने या किसी को हराने के लिए नहीं।

‘यूनिटी चर्च’ में स्वामी रामतीर्थ के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक व्याख्यान शृंखला का आयोजन किया गया—जिसमें उन्होंने ‘सफलता का रहस्य’, ‘प्रेम द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार’, ‘तुम क्या हो?’, ‘आनंद का इतिहास और निवास’, ‘पाप का निदान—कारण और निवारण’ जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर भाषण दिए। क्योंकि स्वामी जी का संदेश एक जाति-धर्म या संप्रदाय से संबंधित नहीं था, इसलिए उन्हें सुनने के लिए ‘विमेन्स क्लब’, ‘स्प्रिच्युलिस्ट क्रिश्चियन यूनियन’ जैसी कई संस्थाओं ने अपने यहां आमंत्रित किया।

ऐसा नहीं कि स्वामी रामतीर्थ ने सिर्फ ‘अध्यात्म’ की ही अपने व्याख्यानों में विवेचना की हो, उसके रहस्यों को खोला हो, उन्होंने तत्कालीन समस्याओं पर भी अपने विचारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के, निर्भय होकर लोगों के सामने रखा। अमेरिका निवासियों से उनका विशेष आग्रह था कि वे भारत के युवाओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करें। अपने इसी आशय को स्पष्ट करने वाली एक छोटी-सी पुस्तिका—‘भारतवासियों के हितार्थ अपील’, स्वामी जी ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति थ्यौडोर रुजवेल्ट को दी थी, जिसे उन्होंने गंभीरता से पढ़ा और स्वामी जी के विचारों और सुझावों की प्रशंसा की। इसी के साथ भारतीय युवकों से उनकी अपेक्षा थी कि वो विश्व के अलग-अलग स्थानों से ज्ञान अर्जित करने के बाद अपने देश वापस आएं और अपनी मातृभूमि की सेवा करें।

इसके बाद लगभग दो वर्षों तक अमेरिका में निवास के बाद स्वामी रामतीर्थ यूरोप, जर्मनी, फ्रांस, इटली और मिस्र आदि देशों से होते हुए 8 दिसंबर, 1904 को स्वदेश—भारत लौट आए। यहां एक बात का विशेष रूप से जिक्र करना आवश्यक है कि मिड्ड की ‘जामा मस्जिद’ में उन्हीं की भाषा अर्थात् अरबी में ही वेदांत के मूलतत्त्व को उन्होंने उपस्थित श्रोताओं को समझाया था। इस दृष्टि से वे अकेले ऐसे संन्यासी हैं, जिन्होंने उतने ही अधिकार से इस्लाम की शिक्षाओं पर अपने विचार रखे, जितने अधिकार से वे हिंदू धर्म अर्थात् वेदांत पर व्याख्यान देते थे।

पश्चिमी देशों के जिज्ञासुओं को वेदांत का सारतत्व समझाने के बाद जब स्वामी रामतीर्थ स्वदेश वापस आए, तो उनके साथ काशी में एक विचित्र घटना हुई। हुआ यूं कि विद्वानों और पंडितों की नगरी काशी में जब वेदांत पर वे प्रवचन करने लगे, तो उपस्थित संस्कृत के विद्वानों ने प्रश्न किया कि ‘आपने उस भाषा का विधिवत् अध्ययन किया नहीं, परंपरया वेदांत ग्रंथों का स्वाध्याय तो किया नहीं, ऐसे में यह कैसे संभव है कि आप उस विषय पर अपने विचार रखें, जिसकी मूल भाषा संस्कृत है। ऐसा करना अनधिकार चेष्टा है।’ सतही तौर पर देखने से यह बात ठीक भी लगती है, लेकिन इसके पीछे भी ईश्वर की ही प्रेरणा थी। वैसे, विदित हो कि बी-ए- में स्वामी जी ने संस्कृत विषय में अच्छे नंबर प्राप्त किए थे। इसके बाद स्वामी रामतीर्थ ने संस्कृत भाषा में उपनिषद् आदि ग्रंथों पर लिखी गई टीकाओं और भाष्यों का गहन अध्ययन किया। इससे उन्हें आंतरिक रूप से और दृढ़ता प्राप्त हुई। इसके बाद वे चाहते थे कि वेदों पर एक निष्पक्ष टीका लिखें, जिससे सामान्य जिज्ञासु साधक को भी इन पवित्र ग्रंथों का आशय समझ आ सके। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे इसी पर गंभीरता से कार्य कर रहे थे।

इस समय व्यास आश्रम में निवास करते हुए आदिशंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित माया का रूप और स्वरूप उनके अंतर्मन में समाविष्ट था। इस समय अकसर वो समाधिस्थ ही रहते थे। इनकी आंतरिक स्थिति का अंदाजा इस समय नारायण स्वामी को लिखे गए पत्रों में स्पष्ट रूप से झलकता है। पूरन जी ने लिखा है—‘मैंने एक कवि संन्यासी के हृदय को बार-बार छेड़ने की कोशिश की, लेकिन वह कहीं खो गया था। अब वहां शेष दिखाई देता था, परम मौन और गहरा ठहराव।’ ऐसा ही होता है, जब सुंदरम् और शिवम् का सत्यम् में लय हो जाता है।

व्यास आश्रम में निवास करते समय स्वामी रामतीर्थ कभी-कभी हरिद्वार भी जाया करते थे। एक बार जब वे हरिद्वार में ही थे, तब उनकी चाची (विमाता), धर्मपत्नी शिवादेवी तथा छोटा पुत्र ब्रह्मानंद, जो उस समय केवल 7 वर्ष का ही था, लाहौर (मुरारीवाला) से स्वामी जी के दर्शन करने आए। अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने अपने प्रिय को देखा नहीं था। आर्थिक और मानसिक रूप से उनकी दशा ठीक नहीं थी। उन्हें लगा अपने प्रिय का दर्शन कर शायद मन को थोड़ी-बहुत शांति मिल सके।

परिवार के आने की सूचना जब पूरन जी ने स्वामी जी को दी, तो उन्होंने निर्देश दिया कि वे उन्हें गंगा स्नान आदि करने के बाद वापिस घर जाने को कहें। स्वामी जी उनसे नहीं मिलना चाहते थे। स्वामी जी के इन शब्दों को सुनकर पूरन जी भड़क उठे। उन्होंने कहा, ‘ठीक है! मैं भी उन्हीं के साथ चला जाता हूं। बाकी भक्तों की तरह ये आपसे क्यों नहीं मिल सकते?’

तर्क मजबूत था। स्वामी रामतीर्थ ने उन्हें बुला लिया। बालक ब्रह्मानंद ने उन्हें स्कूल में सीखी कविता सुनाई। स्वामी जी ने उसे अंगूर का गुच्छा दिया। अपनी चाची से उन्होंने परिवार के अन्य सदस्यों की कुशलता जानी। चाची से बात करते समय बीच-बीच में उनकी हंसी वातावरण के भारीपन को कम कर जाती। शिवादेवी से उन्होंने कोई बात नहीं की। वह भी अपने सर्वस्व को एकटक निहारती रही थी बस। दोनों के पास कहने को शायद कुछ बचा न था, या तो दोनों एक-दूसरे को भलीभांति जान चुके थे, एकाकार हो चुके थे, या फिर साफ हो गया था कि दोनों के रास्ते बिलकुल अलग-अलग हैं—वो कहीं नहीं मिलते हैं।

कुछ समय की बातचीत के बाद लाहौर से आए तीर्थयात्री वापस चले गए। बाद में एकदिन स्वामी जी ने पूरन जी को बताया कि उन्होंने ऐसा क्यों किया था। उनका कहना था—‘कवि पत्थर नहीं बनाए जा सकते। आंतरिक विकास जिस मात्र में होता है, आत्मीयता का भाव भी उतना ही विस्तृत होता जाता है। लेकिन प्रत्येक आश्रम की एक मर्यादा होती है।’

देह की आसक्ति टूट जाने के बाद शरीर में बने रहना तत्वज्ञानी को भार रूप लगता है, कुछ ऐसी ही दशा थी स्वामी रामतीर्थ की, जब वे वशिष्ठ आश्रम में रह रहे थे। इसी समय उन्होंने स्व. जज लाला बैजनाथ जी की ‘प्रार्थना’ नामक पुस्तक के लिए भूमिका के रूप में ‘उपासना’ नाम से एक लेख लिखा था। इस समय स्वामी जी ज्यादातर मौन रहते थे। पूरे दिन या तो पुस्तकों को पढ़ने में वो व्यस्त रहते या फिर गाते-गुनगुनाते या फिर ध्यान में डूबे रहते। इस समय शारीरिक रूप से वो इतने दुर्बल हो गए थे कि पुस्तक उनके हाथ से कब छूटकर गिर जाती, उन्हें इस बात का पता ही नहीं चलता था। पूरन जी के अनुसार, ‘स्वामी जी का व्यवहार बदल गया था। ऐसा लगता था मानो वो आने वाले कल को स्पष्ट रूप से देख रहे थे।’

पूरन जी जब वशिष्ठ आश्रम से जाने लगे तो स्वामी राम ने उनसे नहलाने को कहा। पूरन जी ने उनके कपड़े उतारे। वह झरने में जाकर खड़े हो गए। पूरन जी ने अपने हाथों से उन्हें नहलाया। स्वामी जी ने पूरन जी को आदेश दिया, ‘जाओ और उस कार्य को आगे बढ़ाते रहना, जिसे राम ने शुरू किया है, क्योंकि अब राम मौन हो जाएगा।’ पूरन जी ने इस बात को जब हल्के में लेना चाहा, तो उनकी प्रतिक्रिया बड़ी तीखी हुई। ऐसा लगा मानो किसी योगी की समाधि को तोड़ने की किसी ने चेष्टा की हो, और उसे चेतावनी मिली हो। पूरन जी की तब फिर आवाज न निकली।

पूरन जी को छोड़ने स्वामी राम कुछ दूर तक आए। पूरन जी ने चरण छूकर जब उनसे विदा मांगी, तो राम तेजी से मुड़े और भाग खड़े हुए। उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। लगा सारे संबंधों को उन्होंने एक झटके में तोड़ दिया हो।

इस घटना के एक माह बाद स्वामी जी टिहरी आकर सिमलासू स्थित चंद्रभवन में रहने लगे। यह स्थान गोलकोठी के नाम से भी लोगों के बीच प्रसिद्ध था। इसके बाद नारायण स्वामी के लिए भी अपने से दूर गंगा किनारे एक कुटिया बनवाने और वहीं रहने का उन्होंने निर्देश दिया।

स्वामी रामतीर्थ अब बिलकुल अकेले थे। इसलिए वो महाराज कीर्तिशाह के सिमलासू स्थित चंद्रभवन में आ गए। एकांत में वो स्वाध्याय—चिंतन करते तथा लेख लिखा करते। यहीं पर उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा—‘उन्नति का निश्चित विधान।’ इसे लिखते समय कलम और पेंसिल दोनों का प्रयोग किया गया था। इस लेख में स्वामी जी ने उन्नति के उस नियम की चर्चा की है, जो प्रकृति में विद्यमान है और जिसे आध्यात्मिक जगत द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाता है।

स्वामी जी इस समय शारीरिक रूप से दुर्बल तो थे ही, चट्टान से भिलंगना में कूदने के कारण उनके घुटने में चोट भी लग गई थी। इसलिए वे वहीं चंद्रभवन में भिलंगना से जल मंगवाकर स्नान किया करते थे। उनकी सेवा में एक रसोइया रहता था।

एक दिन सुबह-सुबह रसोइए ने स्वामी जी को कहा कि वह स्नान करने नीचे जा रहा है। स्वामी जी हैरान हुए। नहाने का चोर तड़के स्नान करने जो जा रहा था। जब कारण पूछा, तो जवाब मिला, ‘आज दिवाली है।’ उस समय स्वामी जी कुछ लिख रहे थे। उसे बीच में छोड़ते हुए वे बोले, ‘चलो, आज मैं भी चलता हूं।’ ऐसा लगा, मानो कुछ याद आ गया हो। वहां जाकर वे भिलंगना की स्वच्छ धारा में उतरे। डुबकी लगाई और अदृश्य हो गए। अनुमान है कि उनका पैर फिसला और वो गहरे पानी की धारा में तेज भंवर में फंस गए। रसोइए ने शोर भी मचाया, लेकिन वहां कोई सुनने वाला नहीं था। कुछ देर बाद वो बाहर दिखाई दिए और भिलंगना की धारा के साथ बह चले। इस दिन वे पूरे 33 वर्ष के हुए थे।

कुछ लोग इस घटना को आकस्मिक मानते हैं, तो कुछ के अनुसार, स्वामी जी ने पहले तो उस भंवर से निकलने का प्रयास किया, फिर भावी को स्वीकार करते हुए स्वयं को भिलंगना की पवित्र धारा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी मां गंगी को अपने जीवित शरीर को देने का वादा भी तो किया था, अर्थात् स्वामी जी ने स्वयं ‘जल समाधि’ ले ली। जबकि कुछ लोग मानते हैं कि उन्होंने जीवन से निराश होकर ‘आत्महत्या’ की थी। लेकिन यह बात तर्क की कसौटी पर, स्वामी रामतीर्थ जैसे महान व्यक्तित्व के स्वभाव को देखते हुए उचित नहीं लगती है। आत्महत्या तो जीवन से कुंठित व्यक्ति करता है। कुंठित वह होता है, जिसकी कामनाएं पूरी नहीं हो पातीं। जो समस्त कामनाओं से ऊपर उठ चुका है, उसे इस परिधि में नहीं बांधा जा सकता है, इस कसौटी पर कसकर नहीं देखा जा सकता है, उसका ‘मन’ सामान्य से अलग होता है।

स्नान को जाने से पहले जो वह लिख रहे थे, उससे उनकी अंतर्दशा का स्पष्ट रूप से अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होंने लिखा था—

‘ओ मौत! बेशक उड़ा दे इस एक जिस्म को, मेरे और शरीर ही मुझे कुछ कम नहीं। सिर्फ चांद की किरणें, चांदी की तारें पहनकर चैन से काट सकता हूं। पहाड़ों में नदी-नालों के वेष में गीत गाता फिरूंगा, आनंद के महासागर के लिबास में लहराता फिरूंगा। मैं ही मनोहर वायु और प्रातःकालीन समीर की मस्ती हूं। मेरी यह मनमौजी मूर्ति हर समय हलचल में रहती है।

मौत को मौत आ न जाएगी।
कस्द करके जो मेरा आएगी।
मुझको काटे कहां है वो तलवार?
दाग दे मुझको वह कहां है नार?
बाद में ताब कब सुखाने की?
आब में ताब कब गलाने की?
इस रूप में पहाड़ों से उतरा, मुरझाते पौधों को ताजा किया,
फूलों को हंसाया, बुलबुल को रुलाया, दरवाजों को खटखटाया,
सोतों को जगाया, किसी का आंसू पोंछा, किसी का घूंघट उठाया,
इसको छेड़, उसको छेड़, तुझको छेड़!
वह गया! वह गया!! वह गया!!!
न कुछ हाथ, न किसी के हाथ आया।


जिस दिन नवयुग के इस महान पुरुष ने अपनी लीला का संवरण किया, उस दिन अक्टूबर की 22 तारीख थी और सन् था—1906। अपनी देह का परित्याग करने के बाद ऐसी महान आत्माएं कहां जाती हैं, इसका सामान्यरूप में कोई उत्तर नहीं है। हां, उन संकेतों से अनुमान जरूर लगाया जा सकता है, जिन्हें ये अपने बाद छोड़ जाते हैं। कहते हैं कि बाद में जब इनका पार्थिव शरीर मिला, तो वह पद्मासन में था और होंठों की मुद्रा बताती थी कि ‘ॐ’ का गान करते हुए उन्होंने अपने प्राणों को समष्टि चेतना में विलीन कर दिया था। आज देवभूमि उत्तराखंड के झरनों के कल-कल नाद, चिडि़यों की चहचहाहट, पत्तों के हिलने, फूलों के खिलने, फलों के रसीले स्वाद, पर्वतों के हिमखंडों में उनका अनुभव किया जा सकता है। किसी ने सच कहा है—

मर के भी इस खाक में हम दफन रह सकते नहीं।
लाला-ओ गुल बनके वीरानों पे छा जाते हैं हम!


आज ऐसे मस्त फकीर की, जो सबका हो और सबको अपना स्वीकारता हो, जिसके जीवन में ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’—सब ब्रह्म का ही रूप-स्वरूप है— जीवंत हो गया है, जरूरत है।

आओ, तुम्हारा स्वागत है, हम सबको तुम्हारी हृदय से प्रतीक्षा है—आज तुम्हारे ‘नगद धर्म’ को समझना-समझाना बहुत जरूरी हो गया है। आओ, और बनाओ Dog को God, तुम्हारा यही तो पूरी मानवता से वादा था।